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होता॑ यक्षत्स॒मिधेन्द्र॑मि॒डस्प॒दे नाभा॑ पृथि॒व्याऽ अधि॑। दि॒वो वर्ष्म॒न्त्समि॑ध्यत॒ऽओजि॑ष्ठश्चर्षणी॒सहां॒ वेत्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। स॒मिधेति॑ स॒म्ऽइधा॑। इन्द्र॑म्। इ॒डः। प॒दे। नाभा॑। पृ॒थि॒व्याः। अधि॑। दि॒वः। वर्ष्म॑न्। सम्। इ॒ध्य॒ते॒। ओजि॑ष्ठः। च॒र्ष॒णी॒सहा॑म्। च॒र्ष॒णी॒सहा॒मिति॑ चर्षणि॒ऽसहा॑म्। वेतु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अट्ठाईसवें अध्याय का आरम्भ है, उसके पहिले मन्त्र में मनुष्यों को यज्ञ से कैसे बल बढ़ाना चाहिये, इस विषय का वर्णन किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) यजमान ! तू जैसे (होता) शुभ गुणों का ग्रहणकर्त्ता जन (समिधा) ज्ञान के प्रकाश से (इडः) वाणी सम्बन्धी (पदे) प्राप्त होने योग्य व्यवहार में (पृथिव्याः) भूमि के (नाभा) मध्य और (दिवः) प्रकाश के (अधि) ऊपर (वर्ष्मन्) वर्षने हारे मेघमण्डल में (इन्द्रम्) बिजुली रूप अग्नि को (यक्षत्) सङ्गत करे, उससे (ओजिष्ठः) अतिशय कर बली हुआ (चर्षणीसहाम्) मनुष्यों के झुण्डों को सहनेवाले योद्धाओं में (सम्, इध्यते) सम्यक् प्रकाशित होता है और (आज्यस्य) घृत आदि को (वेतु) प्राप्त होवे, (यज) वैसे समागम किया कर ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि वेदमन्त्रों से सुगन्धित आदि द्रव्य अग्नि में छोड़ मेघमण्डल को पहुँचा और जल को शुद्ध करके सब के लिये बल बढ़ावें ॥१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैर्यज्ञेन कथं बलं वर्द्धनीयमित्याह ॥

अन्वय:

(होता) आदाता (यक्षत्) यजेत् (समिधा) ज्ञानप्रकाशेन (इन्द्रम्) विद्युदाख्यमग्निम् (इडः) वाण्याः। अत्र जसादिषु छन्दसि वा वचनम् [अ०वा०८.३.१०९] इति याडभावः। (पदे) प्राप्तव्ये (नाभा) नाभौ मध्ये (पृथिव्याः) भूमेः (अधि) उपरि (दिवः) प्रकाशस्य (वर्ष्मन्) वर्षके मेघमण्डले (सम्) (इध्यते) प्रदीप्यते (ओजिष्ठः) अतिशयेन बली (चर्षणीसहाम्) ये चर्षणीन् मनुष्यसमूहान् सहन्ते तेषाम् (वेतु) प्राप्नोतु (आज्यस्य) घृतादिकम्। अत्र कर्मणि षष्ठी। (होतः) यजमान (यज) सङ्गच्छस्व ॥१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतस्त्वं यथा होता समिधेडस्पदे पृथिव्या नाभा दिवोऽधि वर्ष्मन्निन्द्रं यक्षत् तेनौजिष्ठः सन् चर्षणीसहां मध्ये समिध्यत आज्यस्य वेतु तथा यज ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्वेदमन्त्रैस्सुगन्ध्यादिद्रव्यमग्नौ प्रक्षिप्य मेघमण्डलं प्रापय्य जलं शोधयित्वा सर्वार्थं बलं वर्द्धनीयम् ॥१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी वेदमंत्रासह सुगंधित द्रव्य होमात सोडून मेघांद्वारे जल शुद्ध करून सर्वांचे बल वाढवावे.